गुरुवार, 20 जनवरी 2011

दारुल नदवा से मस्जिदे ज़र्रार तक.

इस्लाम के ज़हूर के वक़्त जब साहबे इस्लाम हो कर असहाब रसूल हुज़ूर के इर्द गिर्द जमा हो रहे थे , मुशरिकीने मक्का ने दारुल नदवा को अपना मरकज़ बना लिया था ये वही जगह थी जहाँ मुशरिकीन इज्तिमा करके हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के खिलाफ साजिशें करते थे, कि उनकी तौहीन कैसे की जाए. उनको नीचा कैसे दिखाया जाये , और उनको रास्ते से कैसे हटाया जाये.. हिजरत के पहले दारुल नदवा में ही हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को जान से मारने की साज़िश रची गयी थी.
जब मुशरिकीने मक्का पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को सीधे नुक्सान पहुंचाने में कामयाब न हो सके तो उन्होंने एक चाल चली. वह चाल ये थी कि ज़ाहिरन इस्लाम कुबूल कर लिया जाए .इस तरह मुनाफ़िक़ की हैसियत से इस्लाम को ज्यादह नुक्सान पहुँचाया जा सकता है. ये इस्लाम कुबूल करने के बाद भी ज़कात जिहाद और रसूल की मुहब्बत से जी चुराते थे लेकिन नमाजें कसरत से पढ़ते. मुनाफिकों ने मस्जिदे ज़र्रार नाम से अपनी मस्जिद भी बनवा ली थी. जहाँ वो नमाज़ के बहाने जमा हो कर इस्लाम और मुसलमानों को कमज़ोर बनाने की तदबीर करते थे .

हुज़ूर मसलहतन उनको अपने साथ रखते लेकिन जंग तबूक की फतह के बाद वापसी के वक़्त अल्लाह का साफ़ फरमान आ चुका था . ये फरमान मुनाफिकों से सख्ती का था और अल्लाह के फरमान के मुताबिक रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मस्जिद ज़र्रार को ढहने और जलाने का हुक्म दिया.

(इस तरह मुशरिकीन का मुनाफिकीन तक के सफ़र का पहला पडाव दारुल नदवा से शुरू हो कर मस्जिदे ज़र्रार पर ख़त्म हुआ )
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