रविवार, 23 जनवरी 2011

हेम्फ्रे से हेडली तक .पश्चिमी जासूस एशिया मिशन पर .


द्वितीय विश्व युद्ध के विजेताओं ने जो विश्व व्यवस्था (world order) बनायीं है उसमें एशियाई देशों के हुक्मरान गुलामों की सी स्थिति में हैं . पश्चिम को यह मुकाम तीन सौ साल की ख़ास मेहनत के बाद हासिल हुआ है. सन 1700 o के आस पास जब ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश मंत्रालय ने अपने विशेष जासूस एशियाई देशों ख़ास तौर से भारत और अरब में भेजने शुरू किये . तो उन्होंने बहुत जल्द ही तत्कालीन हुक्मरानों की चूलें हिला दीं .

जब अरब में विशेष जासूस हेम्फ्रे अपने अन्य साथियों के साथ अपने काम पर लगा उसी समय भारत में तमाम ब्रिटिश जासूस ईस्ट इंडिया कंपनी की निगरानी में प्लासी युद्ध (1757 o) को अपने पक्ष में करने का तानाबाना बुन चुके थे . हेम्फ्रे और उसके साथियों को तुर्की की खिलाफत ख़त्म करने के लिए अरबों को भड़काने का काम मिला था . वहीँ भारत के लिए ख़ास जासूसों को मुग़ल हुकूमत ख़त्म करने और हिन्दू एवं मुसलमानों में फूट डालने का काम मिला था . यह इन जासूसों का कमाल था की ढाई सौ के अन्दर ही उन्होंने अरब फलस्तीन को कई राज्यों में विभाजित कर . अपने पिट्ठू बैठा दिए .. ज़ाहिरी तौर पर तो वह अपनी सत्ता हस्तांतरित कर रहे थे. परन्तु तब तक वो भारत के बंगाल, पंजाब और कश्मीर को विभाजित कर चुके थे. अरब के कई टुकड़े कर चुके थे. और

फलस्तीन का अस्तित्व ख़त्म कर इजराइल, सीरिया और जार्डन बना चुके थे. आपसी फूट को इन जासूसों ने इस चालाकी से क्रियान्वित किया की अँगरेज़ तो बड़ी आसानी से बिना किसी खून खराबे के सात समंदर पार निकल गए लेकिन इन पवित्र क्षेत्रों में विद्वेष का ऐसा बीज बोया कि इन देशों के बंटवारे और विभाजन में खून की नदियाँ बह गयीं

एशिया को अशांत बनाये रखने का काम अभी जारी है . डेविड हेडली जैसे जासूसों और उनके मिशन को समझ पाना उतना ही मुश्किल है जितना कि प्लासी के युद्ध के समय और हेम्फ्रे और कर्नल लारेंस के समय था .

26/11 के मुंबई हमले में इन जासूसों की करतूत को कम से कम वर्तमान पीढ़ी तो नहीं अगली पीढियां शायद ही समझ सकें ,

यह अजीब विडम्बना है की जब पश्चिमी देश तमाम विभिन्नताओं के बावजूद मित्र राष्ट्र, नाटो और यूरोपियन यूनियन के नाम पर एक जुट हैं वहीँ हर एशियाई देश किसी ना किसी रूप में अपने पडोसी से उलझा हुआ है. जिस पवित्र एशिया ने विश्व को तमाम धर्म और पैग़म्बर दिए वही आज पश्चिम द्वारा प्रतिपादित फूट की प्रौद्योगिकी (technology of division) के सामने असहाय खड़ा है.

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

दारुल नदवा से मस्जिदे ज़र्रार तक.

इस्लाम के ज़हूर के वक़्त जब साहबे इस्लाम हो कर असहाब रसूल हुज़ूर के इर्द गिर्द जमा हो रहे थे , मुशरिकीने मक्का ने दारुल नदवा को अपना मरकज़ बना लिया था ये वही जगह थी जहाँ मुशरिकीन इज्तिमा करके हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के खिलाफ साजिशें करते थे, कि उनकी तौहीन कैसे की जाए. उनको नीचा कैसे दिखाया जाये , और उनको रास्ते से कैसे हटाया जाये.. हिजरत के पहले दारुल नदवा में ही हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को जान से मारने की साज़िश रची गयी थी.
जब मुशरिकीने मक्का पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को सीधे नुक्सान पहुंचाने में कामयाब न हो सके तो उन्होंने एक चाल चली. वह चाल ये थी कि ज़ाहिरन इस्लाम कुबूल कर लिया जाए .इस तरह मुनाफ़िक़ की हैसियत से इस्लाम को ज्यादह नुक्सान पहुँचाया जा सकता है. ये इस्लाम कुबूल करने के बाद भी ज़कात जिहाद और रसूल की मुहब्बत से जी चुराते थे लेकिन नमाजें कसरत से पढ़ते. मुनाफिकों ने मस्जिदे ज़र्रार नाम से अपनी मस्जिद भी बनवा ली थी. जहाँ वो नमाज़ के बहाने जमा हो कर इस्लाम और मुसलमानों को कमज़ोर बनाने की तदबीर करते थे .

हुज़ूर मसलहतन उनको अपने साथ रखते लेकिन जंग तबूक की फतह के बाद वापसी के वक़्त अल्लाह का साफ़ फरमान आ चुका था . ये फरमान मुनाफिकों से सख्ती का था और अल्लाह के फरमान के मुताबिक रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मस्जिद ज़र्रार को ढहने और जलाने का हुक्म दिया.

(इस तरह मुशरिकीन का मुनाफिकीन तक के सफ़र का पहला पडाव दारुल नदवा से शुरू हो कर मस्जिदे ज़र्रार पर ख़त्म हुआ )
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